Sunday, 13 September 2015

"हवा के सहारे"

हवा के सहारे टंगे हैं हम ,
न हमसे कोई महोबत करता है न नफरत,
न हमे कोई खरीदता है न हम किसी के हाथो बिकते  है।
हम चाहते है सब हमारे साथ हों ,
हम चाहते हैं कुछ लोग हमारे साथ न हों ,
क्यों की लड़ने के लिए कोई तोह चाहिए इसलिए उनकी तरहफ भी कुछ लोग चाहते है।
वे हमे जानते है अछि तरह से ,
हम न क्रांति करते है न शांति से बैठते है।
न हम रुके हुऐ है न हम चलते है।
हमे हर वक़्त उन्ही का  फ़ोन आता है,
जबकि हम किसी और की आवाज सुन्ने को बेताब है।
कभी हम अँधेरे से भागते है ,कभी रौशनी से ,
कभी अमावस्य की तरफ चल पढ़ते है ,
कभी चांदनी के निचे बैठ जाते है।
हम दूध भी पीते है ,
हम शराब भी पिटे है।
न हम सोते है ,न हम जागते है,
न हम हस्ते है नह हम रोते है।
हम कभी शहर में जंगल चाहते है ,
तोह कभी जंगल में शहर बसाना चाहते है।
न हम नियम का पालन करते है ,
न हम कोई नियम तोड़ते है।
न हम पढ़ते है,
न किताबो से दूर रहते हैं।
हमे अखबारों के पन्ने अछे नहीं लगते ,
इसलिए अखबारों को भी हम अछे नहीं लगते।
हम अपने कपड़ो से कम,
उनके कपड़ो से जड़ा परेशान है।
हम अपनी आँखों  से नहीं उनके चश्मो से परेशान हैं।
जब हम सूरज बन जाते हैं तोह उनको हमसे डर  लगता है,
जब हम चाँद बन जाते है तोह वोह हमे डराने लगते हैं।
 जब हम खड़े हो जाते है तोह उनके पॉँव में दर्द होना शुरु हो जाता है  ,
हम छुप जाते है तोह वह चेहरा सीधा कर घंटी बजाते हैं।
वह हमारी बढ़ी हुई दाढ़ी में खतरा सूँगते है ,
और हम उनके चिकने गालो पर पेड़ उगाना चाहते है।
वह चाहते है वह हमारी छत के निचे आजाए ,
पर कैसे हम तोह खुदही हवा में टंगे हैं ,
जहाँ न छत हैं न नीव।


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