Sunday 27 September 2015

"टोबा टेक सिंह"


मुझे वागाह पे टोबा टेक सिंह वाले "बिशन " से जा के मिलना है 
सुना है वो अभी तक सूजे पैरॉ पर खड़ा है 
जिस जगह "मंटो " ने छोड़ा था उसे 
वो अब तक बुदबुदाता है 
"ओप्पड़  दी गुड़ गुड़ दी मूंग दी दाल दी लालटेन "
पता लेना है उस पागल का 
ऊंची डाल पर चढ़ कर जो कहता है 
खुदा है वो उसे फैसला करना है  किस का गाँव किस के हिस्से में आयेगा  
वो कब उतरेगा अपनी डाल से 
उसको बताना है 
अभी कुछ और भी दिल हैं  के जिन को बाँटने का ,काटने का काम ज़ारी है 
वो बटवारा तो पहला था अभी कुछ और बंटवारे बाकि हैँ 
मुझे वागाह पे टोबा टेक सिंह वाले बिशन से जा के मिलना है 
खबर देनी है उसके दोस्त फ़ज़ल को 
वो "लहना सिंह ","वधावा सिंह " वो "बेहेन अमृत"
वो सरे क़त्ल हो कर इस तरफ आये थे 
उन की गर्दनें सामान ही में लुट गयी पीछे 
ज़बह कर के वो "भूरी " अब कोई लेने न आएगा 
वो लड़की इक उंगली जो बड़ी होती थी हर बारह महीने में 
वो अब हर इक बरस इक पोटा पोटा घटती रहती है 
बताना है के सब पागल पहुंचे नहीं अपने ठिकानो पर 
बहुत से इस तरफ़ भी हैं बहुत से उस तरफ भी हैं 
मुझे वागाह पे टोबा टेक सिंह वाला बिशन अक्सर यही कह के बुलाता है 

"ओप्पड़ दी गुङ  गुङ दी मूंग  दी दाल दी लालटेन दी हिंदुस्तान ते पाकिस्तान दी दूर फिट्टे मुंह " 

Friday 25 September 2015

हिन्दू या मुस्लमान के अहसासात को मत छेड़ीए  
अपनी  कुर्सी के लिए जज्बात को  मत छेड़िए  
हममे कोई हूण,कोई शक ,कोई मंगोल है   
दफ़न है जो बात ,अब उस बात को मत छेड़िए   
गलतियाँ  बाबर की थी ,जुम्मन का घर फिर क्यों जले   
ऐसे नाजुक वक़्त में हालात को मत छेड़िए 
है कहाँ हिटलर ,हलाकू , जार या चंगेज खाँ 
मिट जाए सब ,कौम की औकात को मत छेड़िए
छेड़िए इक जंग ,मिल -जुल कर गरीबी के खिलाफ 
दोस्त मेरे मजहबी नगमात को मत छेड़िए 
                                             -आदम जोंडवी 

Tuesday 22 September 2015

"सुबह सुर्ख आएगी ,बस रात चलती रहे
बहस होती हो तो हो ,बस बात चलती रहे "

Saturday 19 September 2015

"इस देश में सब कुछ सार्वजनिक है और कुछ भी सार्वजनिक नहीं। "

TRUE LOVE

True love. Is it normal
is it serious, is it practical?
What does the world get from two people
who exist in a world of their own?

Placed on the same pedestal for no good reason,
drawn randomly from millions but convinced
it had to happen this way – in reward for what?
For nothing.
The light descends from nowhere.
Why on these two and not on others?
Doesn’t this outrage justice? Yes it does.
Doesn’t it disrupt our painstakingly erected principles,
and cast the moral from the peak? Yes on both accounts.

Look at the happy couple.
Couldn’t they at least try to hide it,
fake a little depression for their friends’ sake?
Listen to them laughing – it’s an insult.
The language they use – deceptively clear.
And their little celebrations, rituals,
the elaborate mutual routines –
it’s obviously a plot behind the human race’s back!

It’s hard even to guess how far things might go
if people start to follow their example.
What could religion and poetry count on?
What would be remembered? What renounced?
Who’d want to stay within bounds?

True love. Is it really necessary?
Tact and common sense tell us to pass over it in silence,
like a scandal in Life’s highest circles.
Perfectly good children are born without its help.
It couldn’t populate the planet in a million years,
it comes along so rarely.

Let the people who never find true love
keep saying that there’s no such thing.

Their faith will make it easier for them to live and die.
        -Wisława Szymborska

PHUDHU (पागल)

"यह पानी की बोंडे नहीं यह मेरे लहूँ के लछे हैं ,
हमे पागल रहने दो हम पागल ही अच्छे  है। 
जो निकालते हैं हम्मे गलतियाँ कहदो उन्हें वह बच्चे हैं ,
 हमे पागल रहने दो हम पागल ही अच्छे  है।
इधर की उधर लगाओगे मेरा दिल जलाओगे ,
क्या सोच के रखा था हम कानो के कच्चे हैं ,
हमे पागल रहने दो हम पागल ही अच्छे  है।
चुप रहा तोह नाइंसाफी ,सच कहा तोह घुसताखी ,
बोल तोह कढ़वे लगने ही हैं क्यूकि हम दिल के सच्चे हैं ,
हमे पागल रहने दो हम पागल ही अच्छे  है।
ना में शायर हूँ पल दो पल का ना पल दो पल मेरी कहानी है ,
ना में शायर हूँ  पल दो पल का ना में आया हूँ पल दो पल के लिए ,
तुम आज तोह पत्थर बरसालो कल रोह्गे मुझ पागल के लिए ,
हमे पागल रहने दो हम पागल ही अच्छे  है।"

Monday 14 September 2015

"मरा नहीं देखो…… देखो अभी जान बाक़ी हैं "
"रहने दो यार.…… मै  थक  गया हूँ "। 

Sunday 13 September 2015

"हवा के सहारे"

हवा के सहारे टंगे हैं हम ,
न हमसे कोई महोबत करता है न नफरत,
न हमे कोई खरीदता है न हम किसी के हाथो बिकते  है।
हम चाहते है सब हमारे साथ हों ,
हम चाहते हैं कुछ लोग हमारे साथ न हों ,
क्यों की लड़ने के लिए कोई तोह चाहिए इसलिए उनकी तरहफ भी कुछ लोग चाहते है।
वे हमे जानते है अछि तरह से ,
हम न क्रांति करते है न शांति से बैठते है।
न हम रुके हुऐ है न हम चलते है।
हमे हर वक़्त उन्ही का  फ़ोन आता है,
जबकि हम किसी और की आवाज सुन्ने को बेताब है।
कभी हम अँधेरे से भागते है ,कभी रौशनी से ,
कभी अमावस्य की तरफ चल पढ़ते है ,
कभी चांदनी के निचे बैठ जाते है।
हम दूध भी पीते है ,
हम शराब भी पिटे है।
न हम सोते है ,न हम जागते है,
न हम हस्ते है नह हम रोते है।
हम कभी शहर में जंगल चाहते है ,
तोह कभी जंगल में शहर बसाना चाहते है।
न हम नियम का पालन करते है ,
न हम कोई नियम तोड़ते है।
न हम पढ़ते है,
न किताबो से दूर रहते हैं।
हमे अखबारों के पन्ने अछे नहीं लगते ,
इसलिए अखबारों को भी हम अछे नहीं लगते।
हम अपने कपड़ो से कम,
उनके कपड़ो से जड़ा परेशान है।
हम अपनी आँखों  से नहीं उनके चश्मो से परेशान हैं।
जब हम सूरज बन जाते हैं तोह उनको हमसे डर  लगता है,
जब हम चाँद बन जाते है तोह वोह हमे डराने लगते हैं।
 जब हम खड़े हो जाते है तोह उनके पॉँव में दर्द होना शुरु हो जाता है  ,
हम छुप जाते है तोह वह चेहरा सीधा कर घंटी बजाते हैं।
वह हमारी बढ़ी हुई दाढ़ी में खतरा सूँगते है ,
और हम उनके चिकने गालो पर पेड़ उगाना चाहते है।
वह चाहते है वह हमारी छत के निचे आजाए ,
पर कैसे हम तोह खुदही हवा में टंगे हैं ,
जहाँ न छत हैं न नीव।