Wednesday 6 January 2016

सन्नाटा

तो पहले अपना नाम बतादूँ तुमको ,
फिर चुपके-चुपके धाम बतादूँ तुमको ,
तुम चौंक नहीं पढ़ना यदि धीमे-धीमे अपना कोई काम बतादूँ  तुमको ,
कुछ लोग भ्रान्ति वर्श  मुझे शांति कहते है।  
कुछ निस्तब्ध बताते है ,कुछ चुप रहते है। 
मै शांत नहीं हूँ ,निस्तब्ध नहीं हूँ ,फिर क्या  हूँ,
मै मौन नहीं हूँ ,मुझमे स्वर बहते है। 
कभी -कभी  मुझमे कुछ चल जाता है ,
कभी -कभी मुझमे कुछ जल जाता है ,
जो चलता है शायद  मेंढक हो ,
वह जुगनू है जो तुमको छल जाता है। 
मै सन्नाटा हूँ ,फिर भी बोल रहा हूँ ,
मै शांत बहुत हूँ ,फिर भी डोल रहा हूँ। 
यह सर -सर यह खढ़ -खढ़ यह सब मेरी है। 
है यह रहस्ये लो अब इसको मै  खोल रहा हूँ। 
मै सूने में रहता हूँ ,एसा सूना  जहाँ घास उगा होता है ऊना-ऊना ,
और झाड़  कुछ इमली के ,पीपल के अंधकार जिससे होता है  दुगना। 
तुम देख रहे हो मुझको ,मै जहाँ खड़ा हूँ  ,
तुम देख रहे हो मुझको, मै  जहाँ  पढ़ा हूँ ,
मै  ऐसे खंडर चुनता फिरता  हूँ,
मै  एसी ही जगह पला बढ़ा हूँ। 
हाँ यहाँ  किल्ले की दीवारो के ऊपर ,
निचे तल घर में ,समतल पर या भू पर ,
कुछ जलश्रुतियों  का पहरा यहाँ लगा है  ,
जो मुझे भयानक कर जाति है छू  कर ,
तुम डरो नहीं , वैसे डर कहाँ नहीं है ,
पर खास बात डर की  कुछ यहाँ नहीं है। 
बस एक बात है वह केवल ऐसी है,
 कुछ लोग यहाँ थे अब वो वहाँ नहीं है। 
यहाँ  बहुत दिन हुए एक थी रानी ,
इतिहास बताता नहीं उसकी कहानी। 
वो किसी एक पागल पर जान दिए थी ,
थी उसकी केवल एक यही नादानी। 
यह घाट नदी का जो अब टूट गया है ,
यह घाट नदी का जो अब फूट गया है,
वो यहाँ बैठ  कर रोज -रोज गाता था, 
अब यहाँ  बैठना उसका छूट गया है। 
शाम हुए रानी खिड़की पर आती थी ,
पागल के गीतों को वह दोहराहती ,
तब पागल आता और बजाता बंसी ,
रानी उसकी बंसी पर छुप -छुप  कर जाती। 
एक दिन राजा ने यह देखा ,
खीच जाई उसके दिल पर दुख की एक रेखा ,
वो भरा क्रोध मे  आया और रानी से माँगा उसने इन सब सांझो का लेखा झोका ,
रानी बोली पागल को जरा बुला दो ,
मै  पागल हूँ राजा तुम मुझे भुलादो ,
मै  बहुत दिनों से जाग  रही हूँ राजा ,
बंसी बाजवा कर तुम मुझको जरा सुल्ला  दो। 
वो राजा था हाँ कोई खेल नहीं था ,
एसे जवाबो से उसका कोई मेल नहीं था। 
रानी एसे बोली थी जैसे  इस बड़े किले में कोई जैल नहीं था। 
तुम जहाँ  खड़े हो ,यही सूली थी ,
रानी की कोमल देह यही झूली थी ,
हाँ पागल की भी यही ,रानी की भी यही ,
राजा हस  कर बोला था "रानी तू भूली थी"। 
किन्तु नहीं राजा ने फिर यह सुख जाना ,
हर जगह जुंगता था पागल का गाना ,
बीच -बीच में "राजा तुम भूले थे" ,
रानी का हास कर सुन पढता था यह ताना। 
तब और बरस बीते ,राजा भी बीते ,
रह गए किल्ले के कमरे रीते -रीते। 
तब मै आया ,कुछ मेरे साथी आए ,
अब हम सब मिलकर करते है  मनचीते। 
पर कभी -कभी वह पागल आ जाता है ,
लता है रानी को यह  गा जाता  है ,
तब मेरे उल्लू ,साँप और गिरगट  पर एक अंजाना  सा सकता छा जाता है। 
                                                     - बवानी प्रसाद मिश्रा