Thursday, 21 February 2019

साज़िश - By Javed Akhtar

मुझे तो यह लगता है,
जैसे किसी ने 
यह साज़िश रची है। 
के लफ्ज़ और माने में जो रिश्ता है 
उसको जितना भी मुमकिन हो कमजोर कर दो 
के हर लफ्ज़ बन जाए बेनामी आवाज 
फिर सारी आवाजों को ऐसे घट मठ करो 
ऐसे जुंड़ो के एक शोर कर दो 
यह शोर एक ऐसा अंधेरा बुनेगा के 
जिसमे भटक जाएँगे अपने लफ्ज़ो से बिछड़े हुए 
सरे गूंगे महानी भटकते हुए रास्ता ढूंढ़ते 
वक्त की खाई में गिर कर मर जाएंगे 
और फिर आकर बाजार में खोखले लफ्ज़
बेबस जुलामो के मानिंद बिक जाएंगे 
यह गुलाम अपने आकाओं के एक इशारे पर 
इस तरह युरिश करेंगे के सरे ख़्यालात 
की सब इमारत सारे जज़्बात के शिशाघर 
मुलसिम हो कर रह जाएँगे हर तरफ जहन की 
बस्तियों में यही देखने को मिलेंगे के एक अफ्रा तफ्री मची है 
मुझे तो यह लगता है 
के किसीने यह साज़िश रची है।   
मगर कोई है जो यह कहता है मुझसे 
के हैं आज भी लफ्ज़मानी के ऐसे परिशतारो शहादा 
जो मानी को यूँ बेजबां लफ्ज़ को ऐसे नीलम होने ना देंगे 
अभी ऐसे दीवाने है जो ख़्यालात का सारे जज्बात का दिल 
की हर बात का ऐसा अंजाम होने ना देंगे 
अगर ऐसे कुछ लोग हैं तो कहाँ हैं 
वह दुनियाँ के जिस कोने में हैं 
जहाँ हैं उन्हें यह बता दो के लफ्ज़ और मानी 
बचने के ख़ातिर ज़रा सी मोहलत बची है 
मुझे तो यह लगता है 
के किसीने यह साज़िश रची है।  

Sunday, 8 October 2017

मैं एक लड़की हूँ

 मैं एक लड़की हूँ
मैं जश्न मना रही थीं नए साल का
जब करदिया तुमने बेहाल सा
मुझ छूने की इजाज़त तुम्ने ना ली
और यही अहसास दिलाने की कोशिश की
तू लड़की है दर्दर के जी
शर्म तुम पर तो आती है
पर साथ साथ उन पर भी आती है
जिन्होंने तुम्ह जन्म दिया
तुम्हारे कुकर्मो का बोझ आपने सर पर लिया
शायद बताया नहीं  गया  यह तुमको
कैसे सम्मान करते है एक औरत का
यह भी हो सकता है
पता ना हो उन्हें तुम्हारी फितरत का
पर सच कहु सम्मान नहीं सम्मानता चाहिए
और सम्मानता इख़्तियार नहीं हक़ हैं मेरा
ख़ैर कुछ बोझ तो मेने भी सर लिया है
चंद लोगो ने मुझे ही गलत बता दिया
क्यूकि मैं छोटे कपडे पहनती हूँ
देर देर रात घर से बहार रहती हूँ
और यही समझके वह ठेकेदार
जो साल में कुछ दिन
मुझे दुर्गा लक्ष्मी के नाम से जानते है
और बाकि दिनों में मेरी तुलना
मुन्नी शीला लैला तंदूरी मुर्गी से करते है
जुस्सा आता है रोती भी हूँ
मगर अकेले में क्यूकि इल्म हैं मुझे इस बात का
के इस जमाने से लड़ने के लिए मुझे मजबूत रहना हैं
ताकि कल कोई खड़ा होकर यह ना बोले
शर्म तो औरत का गेहन्ना है
हद में उनको रहना हैं
जिन्होंने मुझसे बिना पूछे मेरी हद तय करदी हैं
और हाँ इन ओछे इल्जामों का
इन झूठी बातो का सामना आज से नहीं कर रहीं हूँ एक अर्सा होगया हैं 
कल द्रोपती बन कर किया था आज निर्भया बन कर रही हूँ मैं
कल किसी और शक्ल में किसी और रूप किसी और आवाज़ में करुँगी
पर करुँगी जरूर और एक दिन तुम्हारी मर्दांनगी को उसकी असल जगह दिखाकर
उस जीत का जश्न मनाऊँगी
मैं एक और वाद विवाद का हिस्सा हूँ
कौन ज्यादा फ़ाज़िल हैं कौन ज़्यादा बहतर हैं
लड़का या लड़की उन सब लड़कों को
जो ख़ुद को मुझसे बहतर मानते हैं
मैं एक सवाल पूछना चाहती हूँ
क्या कभी अंधेरे में घर से बहार जाने में घबराहट हुई हैं
क्या ऐसा लगा हैं कोई पीछेपीछ आएगा
बिना पूछे छुलेगा नहीं ना
मैं हर दिन उस डर को पीछे छोड़ घर से क़दम घर के बहार निकालती हूँ
फखर होता है ख़ुद पर के
मैं एक लड़की हूँ।

फखर होता है ख़ुद पर के
मैं एक लड़की हूँ।


Saturday, 7 October 2017

जौ बहा था खून उसके दूर तक चिट्टे गए

जौ बहा था खून उसके दूर तक चिट्टे गए 
कल अदालत में पुनः श्री राम घसीटें गए।  

जझ ने बोला हे प्रभू हम को शमा है  चाहिए 
आप नामज़द हुए हैं कङघाड़े में आईये। 

अल्लाह नदारत हैं जबकि उनको भी सम्मन गए 
ऐसा सुन कर काढ़ घरे में राम जी फिर तन गए। 
राम जी कहे 
मै हिन्दू ,मुस्लिम दोनों के ही साथ हूँ 
मै ही अल्लाह मै ही नानक 
मै ही अयोध्या नाथ हूँ।

त्र्ता युग में मै जिस के लिए लिया मैने अवतार था 
आज देखता हूँ तौ लगता है की सब बेकार था। 

केवट और शबरी के बहाने भेद -भाव को तोड़ा था 
तुम को समझने को मैने सीता तक को छोड़ा था। 

मेरे मन्दिर के लिए जब तुम थे रथ पर चढ़रहे 
 देश के एक कोने में कश्मीरी पंडित मर रहे। 

फिर मेरी ही सौगांध खा कर काम ऐसा कर गए 
मेरे लिए दंगे हुए मेरे ही बच्चे मर गए। 

ख़ैर अभी है समय तुम भूल अपनी पाट दो 
जन्म भूमि पर घर बनाओ और गरीबो में बांट दो। 

ऐसा करना हूँ मै कहता परम पुण्य का कॉज हैं
नयाये अहिंसा परमार्थ प्रेम यही तो राम राज है। 

तब बिच में बोला किसीने जब वो उक्ता गया 
राम चंद्र के भेस मेँ यह कौन मुसलमा आ गया। 

ऐसा कहना था के भईया ऐसा हल्ला मच गया 
जो एन्ड टाइम पर कट लिया बस वो ही था जो बच गया। 

फिर राम भगतो के ही हाथोँ राम जी पीटे गए 
जौ बहा था खून उसके दूर तक चिट्टे गए।  




Sunday, 2 July 2017

ZAKIR KHAN SHAYARI

यह खत हैं उस गुलदान के नाम जिसका फूल  कभी हमारा था,
वह जो तुम उसके मुख़्तार हो तो सुनलो,उससे अच्छा नहीं लगता।
मेरी जान के हक्क्दाऱ हो तो सुनलो, उसे अच्छा नहीं लगता।।
वह जब ज़ुल्फ़ बिखेरे तो बिखरी ना समझना ,
अगर ज़ुल्फ़ माथे पर आजाये तो उससे बेफिक्री ना  समझना ,
दर्हसल उसे ऐसे ही पसंद हैं।।
उसकी आज़ादी उसकी झुल्फों में बंद हैं,
जानते हो वह हजार बार अपनी झुलफें ना स्वारे तो उसका गुजारा नहीं होता।
वैसे दिल बहुत साफ़ है उसका , इन बातो में कोई इशारा नहीं होता।
ख़ुदा के वास्ते उससे रोक ना देना , उसकी आज़ादी से उसे टोक ना देना
अभ मै नहीं तुम उसके दिलदार हो तो सुनलो ,
उसे अच्छा नहीं लगता।।

Saturday, 1 July 2017

ZAKIR KHAN SHAYARI

बहुत मासूम सी यह लड़की है इश्क की बात नहीं समझती
बहुत मासूम सी यह लड़की है इश्क की बात नहीं समझती।।

ना जाने किस दिन में खोई रहती हैं मेरी रात नहीं समझती
हाँ .. ह्म्म ....  सही बात हैं ......  तो कहती हैं
हाँ .. ह्म्म ....  सही बात हैं ......  तो कहती हैं

अल्फाज़ तो समझलेतीं हैं लेकिन जज़्बात नहीं समझती।।

Tuesday, 20 June 2017

ZAKIR KHAN SHAYARI

वह तित्तली की तरह मेरी ज़्हिंदगी में आई,
और मेरे जितने नापाक थे इरादे उन्हें पाक कर गई।